हम क्यों मनाते हैं गुरुपौर्णिमा?
और इसी दिन क्यों? कोई और दिन नहीं मिला?
दरअसल गुरुपौर्णिमा होता है जन्मदिवस गुरु व्यास का।
व्यास मुनि, महाभारत नामक महाकाव्य के रचैता। महाभारत आज तक का लिखा गया शायद सबसे महान और सबसे गहरा ग्रंथ है।
लेकिन फिर भी एक सवाल तो बचता हैं। व्यास ये कैसा नाम हुआ? क्या अर्थ हैं इसका? और व्यास मुनि के जन्मदिन को क्यों गुरुपौर्णिमा कहते हैं ?
तो ये समझने के लिए थोड़ा महाभारत समझ लेते हैं। आजतक हमने शायद महाभारत को किसी रोचक कथा या सत्ता का राजकरण इस लिहाज से देखा होगा। आज थोड़ी गहरी बात करें?
महाभारत के पात्र देखे। धर्मराज, यानि युधिष्ठिर, जो अपने वचन, तत्व और अपने चरित्र को इतना स्वच्छ रखते है, की धृतराष्ट्र की आज्ञा से द्युत खेलने बैठे, तो उन्होंने रुकने आज्ञा नहीं दी तो खेलते ही रही। अपनी संपत्ति, राज्य, अपने भाई, यहांतक की अपनी पत्नी को दांवपर लगा दिया। लेकिन चाचाजी ने उठने की आज्ञा नहीं दी तो खेलते ही रहें।
इसी के चलते द्रौपदी का वस्त्रहरण हुआ। आदर्शवाद का अतिरेक अपनी ही लाज निकलता है, ये बताने का इससे भीषण उदहारण किसी और ग्रन्थ में नहीं मिलता।
लेकिन उसके बिलकुल विपरीत है दुर्योधन। जहां एक तरफ धर्मराज केवल सत्य बोलते है, दुर्योधन ने जीवनभर पांडवों के खिलाफ षड्यंत्र किए। ये मानों युधिष्ठिर का ही बिलकुल उल्टा रूप हैं। जितनी निष्ठा और लगन से युधिष्ठिर धर्म और सत्य के लिए समर्पित थे, उतनी ही तीव्रता और गहराई से दुर्योधन साजिश और अधर्म के रस्ते पर चलते दिखते हैं। मुलत: चेतना एक ही हैं, लेकिन बर्ताव बिलकुल विपरीत।
जीवन एक चक्र की तरह हैं। जैसे एक circle हो। इस चक्र के केंद्र में हैं ईश्वर। और हर विचार, स्वभाव, उस केंद्र के बाहर, उस चक्र का एक बिंदु है।
इस बिंदु के ठीक सामने है बिल्कुल उलट स्वभाव का बिंदु। मानो एक बिंदु है धर्मराज, तो दूसरा बिंदु है दुर्योधन।
इसी तरह मोह और जो प्रिय है उसमें जान अटकी होने की दास्तां सुनाते है, भीष्म और धृतराष्ट्र। धृतराष्ट्र की जान अटकी है, राजा की गद्दी, और पुत्र मोह में। और भीष्म ने अपने जीवन में इतने त्याग किए है, लेकिन फिर भी जान अटकी है हस्तिनापुर में। दोनों ही महसूस करते हैं की मेरा उद्देश्य मैं तो हासिल नहीं कर सका, धृतराष्ट्र अपनी अंध होने के कारण राजा नहीं बन सके, पंडु की मृत्यु की वजह से उन्हें आखिर राजा बनाया गया। लेकिन अपने दम पर राजा न बनने की पीड़ा उन्हें हमेशा खलती रहीं। और मेरे पश्चात् मेरा बेटा राजा बने, इस इच्छा ने उन्हें पूरी तरह कब्जे में ले लिया था। उसी तरह भीष्म अपने दम पर हस्तिनापुर को साजिश और नीच सोच से नहीं बचा सके। और अपने पश्चात् ये भूमि सुरक्षित रहें इस बात ने भीष्म को अपने कब्जे में लिया था।
जान अटकी रहने का ये परिणाम होता ही है, की आपको बेहद दुख झेलना पड़ता है। दोनों ने किया। धृतराष्ट्र तो रोज ही दो कामनाएं करते रहे, की दुर्योधन गलत मार्ग न अपनाएं और दुर्योधन राजा बन जाएं। लेकिन वो दुर्योधन को रोक नहीं सके। जब लाक्षागृह जला, खबर थी कि पांडव मर गए। धृतराष्ट्र चाहते तो दुर्योधन को दंड देते की धोखे से मेरे भतीजों को क्यों मारा? लेकिन मेरे बाद मेरा पुत्र गद्दी पर बैठे, ये लालसा बहुत तीव्र थी, देश और मानवता के लिए योग्य कदम उठाने के विवेक से। इसी का बिल्कुल उल्टा बिंदु है, भीष्म। कोई वैयक्तिक लालसा नहीं। युद्ध करेंगे तो जीत निश्चित। लेकिन जान अटकी है, देश और प्रजा की भलाई में। कर्तव्य और व्यक्तिगत अभिप्सा में भीष्म ने हमेशा कर्तव्य का साथ दिया और धृतराष्ट्र ने अभीप्सा का।
उसी तरह देखते है विदुर को। महाविवेकी विदुर प्रधान थे दरबार में। ये तो सभी जानते है कि विदुर के रहते बेहद उत्तम शासन और व्यवस्था बनाई गई थी, उस कालखंड के दायरे में। विदुर जानते थे धर्म, लेकिन खास बात ये है कि विदुर तुरंत समझते थे मर्म।
अब विदुर बिल्कुल विपरीत है, शकुनि। शकुनि दुर्योधन के मामा, लंगड़ाते थे। ठीक से देखा जाए तो तो पैर में दर्द हो तो हम उस पैर को जमीन पर रखना नहीं चाहते। चलते वक्त उस पैर पर काम भार पड़े इस बात का ख्याल रखते हैं। और इस कोशिश में लंगड़ाते हैं। लंगड़ाने के लिए ये जरुरी हैं, की इंसान अपने अस्तित्व के base पर दर्द से खड़ा हो। जब base ही कोई दर्द हो तो स्वाभाविक रूप से चलना मुमकिन नहीं। मेरा भांजा, दुर्योधन, धृतराष्ट्र का बेटा होने के बावजूद आगे राजा नहीं बनेगा, और युधिष्ठिर के आदेशों का पालन करेगा, ये पीड़ा शकुनि का base हैं। अब लंगड़ाना तो होगा ही। और जिसका base ही ईर्षा हो उसके चलन में गड़बड़ तो होगी ही। शकुनि नामक पात्र का लंगड़ा होना, महर्षि व्यास के महान प्रतिभा का उदहारण हैं।
जहां लाक्षागृह के मामले में, शकुनि ने आग लगाकर पांडवों को मारने कि साजिश कि, वहीं विदुर ने दुर्योधन कि बात और बर्ताव से तुरंत समझ लिया की ये पांडवों को मारने कि साजिश है। फिर जब लाक्षागृह में जाने से पहले पांडव विदुर के पास पैर छूने आएं, तो विदुर कुछ ऐसा किया की केवल युधिष्ठिर समझ सके।
विदुर ने धर्मराज से पहेली पूछी की वन की आग में कौन जीवित रह सकता है? अब वन में बने ख़ास महल में vacation पर जाने से पहले कोई अपने युवराज को ऐसे सवाल पूछता हैं क्या? युधष्ठिर तुरंत समझ गए की यह बात इतनी जरुरी हैं की वापिस आने का इंतजार नहीं किया जा सकता। युधिष्ठिर ने जवाब दिया, चूहा। क्यों की चूहा बिल में रहता है, और आग तो ऊपर जाती है। विदुर ने कहा, तो तुम जानते हो। और धर्मराज की ओर देखते रहे और चेहरे पर गंभीर भावों से जताते रहे की बात गंभीर है।
तब धर्मराज को समझ में आया कि आग लगाने की साजिश हो सकती है। और फिर सुरंग बनाकर सारे पांडव भाग सके।
एक तरह से देखा जाएं तो विदुर और शकुनि भी दो विपरीत स्वभाव लेकिन एकही प्रेरणा के व्यक्ति थे। बुद्धिमान तो दोनो थे। कोई बोल सकता है कि साजिश के लिए बुद्धि नहीं चाहिए? तो दोनों भी बुद्धिमान थे। लेकिन बुद्धि के इस्तेमाल का कारण और उद्देश्य देखें, तो दोनों बिल्कुल विपरीत थे।
जाहिर है, जीवन के पट पर जो चक्र है, उसके ये विपरीत बिंदु है। लेकिन जीवन में दोनों ही प्रभाव डालते है।
और यहीं नहीं। शकुनि की साजिश कि वजह से विदुर को प्रेरणा मिलती रही की अपनी बुद्धि से वे और गहरी बात समझे। साजिश को decode करें। और फिर उस साजिश को नाकाम करने की तरकीब निकाले। इस तरह जब जब शकुनि की साजिश का पलड़ा भारी होता गया, तब तब विदुर की चतुरता दूसरे पलड़े में ऊपर आकर अपने तेज को दिखाती रहीं।
और जैसे ही विदुर साजिश को विफल करता, शकुनि और गहरी साजिश करने के प्रेरित होता।
Opposites in life work in tandem !
जैसे दिखने में तो विदुर आदरणीय है और शकुनि घृणा के लायक। लेकिन गहराई से समझे तो दोनों ही एक दूसरे को प्रेरित करते है, और गहराई तक जाकर कार्य करने के लिए। हमे ये तो मानना होगा कि बिना शकुनि के लाक्षागृह की साजिश के, “वन की आग में कौन सुरक्षित रह सकता है?” यह प्रश्न खास युधिष्ठिर को पूछने कि और उसे जगाने की, विदुर की महान बुद्धिमत्ता हमारे सामने कभी नहीं आती।
जीवन में श्रेय और अभिशाप दोनों साथ में चलते है। चुनाव असंभव है। आपको अगर किसी बात पर तारीफ मिले, तो कहीं न कहीं, कभी न कभी उसी बात के किसी पहलू पर आपको निंदा का भी सामना करना पड़ता है।
शकुनि और विदुर, दोनों दिखने में बिलकुल विपरीत हैं। लेकिन जीवन में आपको जो मिला हैं, उसका इस्तेमाल करने की प्रेरणा के तौर पर दोनों ही एक से हैं।
बस विदुर न्याय और धर्म के लिए बुद्धि का इस्तेमाल करते हैं। और शकुनि साजिश के लिए। जीवन चक्र के ये दो विपरीत बिंदु है।
चक्र यानि circle के विपरीत, बिल्कुल उलट दिशा में होने वाले बिंदुओं को जोड़ने वाली रेखा, केंद्र से गुजरती है। इस रेखा को अंग्रेजी में diameter और हिंदी में व्यास कहते है, व्यास !
व्यास वो है, जो बिल्कुल उल्टे स्वभाव को जोड़ता है। जैसे कोई पतिव्रता, जिसने किसी और पुरुष के बारे में कभी सोचा तक नहीं। और बिल्कुल उल्टे बर्ताव के चरम पर है, कोई वेश्या, जिसने हर उस पुरुष से संभोग किया है, जो उसके पास आया। प्रेम और निष्ठा के लिए धन और वासना को त्यागने वाली पतिव्रता एक बिंदु है। और प्रेम और निष्ठा को छोड़, धन देगा तो कुछ समय के जो चाहे कर ले, इस तरह से बिल्कुल वासना को पकड़ती, वेश्या विपरीत बिंदु है। लेकिन क्या हम नहीं जानते, की आनेवाले हर पुरुष की वासना की अग्नि को शांत करनेवाली वेश्या न हो समाज में, तो कोई पतिव्रता घर या बाहर सुरक्षित न रह पाएं।
अगर अंग्रेज यहां लोगों की भलाई और लोगों के स्वाभिमान के लिए शासन करते, तो क्या कोई गांधी, कोई नेहरू, कोई सुभाषचंद्र बोस या कोई भगतसिंह उभर कर सामने आता?
इम्रान खान ने एक बार यहीं तरकीब अपनाई थी। पाकिस्तान का ख़ास बल्लेबाज जावेद मियांदाद लगातार फेल हो रहा था। और भारत के खिलाफ बड़ी अहम् टेस्ट मैच थी। इम्रान ने जावेद को बोला की उसने सुना हैं की कपिल देव ने जावेद की ख़राब फॉर्म के देखकर उसका मजाक उड़ाया हैं। अब ये जावेद के अहंकार पर प्रहार था। जावेद ने दूसरे दिन जो खतरनाक पारी खेली, की जैसे वो कुछ साबित करना चाहता हो। शाम को इम्रान ने बताया की बस जावेद को उकसाने के लिए और उससे बेहतर खेल निकालने के लिए उसने झूट बोलै था।
जावेद और कपिल दोनों ही बड़े खिलाडी थे, आगे जाकर दोनों ही महान खिलाडी बने। लेकिन दोनों ही एक दूसरे के सामने खुद को बेहतर दिखाना चाहते थे। तो जावेद की यह जरुरत थी की कपिल ने किए, कथित अपमान का बदला, वो अपने खेल से लेकर दिखाएं।
कुछ लोग जो अपने आप को औरों से बेहतर मानते हैं, उन्हें बेहतर काम के लिए कैसे प्रेरित करे?
मेरा एक स्टूडेंट था, बेहद कमाल का। इतना की उसे गर्व भी था अपने होशियारी का और कुछ घमंड भी। मेरा दोस्त उसे उकसाने के लिए कहता रहता, की तूने गलत जवाब लिखा? इतनी बेवकूफी? यार मैं तो बिना वजह तुझे बड़ा होशयार मानता था। बस फिर क्या? ये साहब रात भर पढ़कर आते दूसरे दिन और अपने शिक्षक को दिखा देते की वो कितने होशियार हैं।
विदुर और शकुनि, दुर्योधन और युधिष्ठिर अलग अलग इंसान नहीं, एक ही व्यक्तित्व के दो पहलू हैं।
जब युधिष्ठिर अपने लक्ष को हासिल न कर पाएं, तो आदमी के भीतर दुर्योधन की तरह साजिश करने की इच्छा जागती हैं। लेकिन साजिश कभी न कभी तो पकड़ी जाएगी। और आज तक जो नाम कमाया हैं, वो भी गया। जाहिर हैं, आपके अंदर के धर्मराज को ही बेहतर बनके, और मेहनत से अपना लक्ष्य हासिल करना होगा। जिसे बुरा कहा जाता हैं, वो दरअसल हमारी अच्छाई के पराजित होने के दुख का व्यक्त रूप हैं।
किसी तरह अगर हमारी अच्छाई को बल मिले, तो लक्ष्य हासिल किया जा सकता हैं। लेकिन चक्र घूमेगा तभी तो गति मिलेगी। जाहिर हैं, चक्र के घूमने में, गति बढ़ाने की कोशिश में, हमें चक्र के विपरीत बिंदु को भी छूना पड़ेगा। जो आपके लिए वर्जित था, उसे साथ लिए बिना, लक्ष्य को अर्जित करना संभव नहीं।
क्यों की जो दिखने में बिल्कुल उल्टा या विपरीत है, उनमें भी, मूलतः एक ही तत्व बह रहा है।
Opposites of life balance each other…
पतिव्रता स्त्री की वासना केवल उसके पति से जुड़ी है। और इसके कारण भी वो दुख और समस्याओं का सामना तो करती है। लेकिन उसे सम्मान मिलता है। वेश्या अपने शरीर और वासना का सौदा करती है, कुछ समय के लिए, कुछ रुपए के लिए किसी के सुपुर्द हो जाती है। उसे कई बार गाली की तरह देखा जाता है।
लेकिन प्राचीन दौर मै वेश्या को गणिका कहा जाता था और उनकी बहुत इज्जत थी। क्यों की सभी जानते है, की बेहद मुश्किल और बेहद गुस्से में मर्द कुछ भी करने पर उतर सकता है। उसके पहले अगर को वो गणिका के आगोश में अपना गुस्सा निकाले तो बाहर आकर वो पुरुष समाज के लिए खतरा नहीं रहता।
खैर, जैसे पतिव्रता और गणिका एक ही तत्व के बिल्कुल उल्टे रूप है, लेकिन दोनों एक दूसरे को ऊपर उठाएं हैं। अगर कोई औरत पतिव्रता न हो तो समाज में हर पुरुष को जिस स्त्री से चाहे, सम्भोग की सुविधा मिल जाएं। तब वेश्या की जरुरत ही नहीं रहेगी।
लेकिन विवाहित स्त्री और पुरुष, दोनों ही एकदूसरे से निष्ठा रखना चाहते हैं, इसलिए कुछ ऐसे बच जाते हैं, जो अपनी पत्नी से या तो निराश हैं, या उनकी पत्नी हैं ही नहीं। उनके लिए दो ही रास्ते हैं। किसी और की पत्नी से जबरदस्ती या फिर वेश्या का दरवाजा। जबतक ऐसे पुरुषों की पशुता को वेश्या सवार रहीं हैं। उनकी अनजानी, अनियंत्रित वासना को शांत कर रही हैं, तब तक ही पतिव्रता, अपने निष्ठा को कायम रख सकती हैं।
ये तो बिलकुल वैसे ही हुआ की शकुनि की साजिशों के कारण ही विदुर की बुद्धिमत्ता और विवेक की कथा बनती हैं।
जीवन के चक्र या circle पर, साजिश करनेवाला और साजिश को नाकाम कर भलाई और विवेक की बात करने वाला, दोनों उलट हैं, विपरीत हैं। बिलकुल एकनिष्ठ पत्नी और बाजार में बैठी वेश्या की तरह पूरी तरह विपरीत। लेकिन ये दोनों जो विपरीत दिखाई देते हैं, एक दूसरे पर निर्भर हैं। उनका अस्तित्व उनसे बिलकुल उलटे स्वभाव पर निर्भर हैं।
मैं जब प्राइवेट क्लासेस लेता था, तब कोई कॉलेज का शिक्षक मुझपर टिपण्णी करें तो मैं उलटी टिपण्णी न करने की कोशिश करता था। भाई कॉलेज का शिक्षक असफल होगा तभी तो बच्चे मुझसे पढ़ने आएंगे !
जीवन चक्र में जो विपरीत दिखाई दे, उनमे जो गहरा सम्बन्ध हैं, उसे दिखाने से, एक रेखा बनती हैं विपरीत बिंदुओं को जोड़ने वाली। वह रेखा जीवन के चक्र और उसके मर्म का भेद करती हैं। उस रेखा को अंग्रेजी में कहते हैं diameter और हिंदी में कहते हैं, व्यास !
जिस व्यक्ति ने अपने जीवन में ये मर्मभेद किया, और उसे महाभारत कथा में रचा, उस आदमी को नाम दिया गया, व्यास।
आज उनका जन्मदिवस हैं। और इसे भी क्या खूब नाम दिया हैं इस संस्कृति ने, गुरुपौर्णिमा !